चलिऐ जानते है इसके बारे में कुछ रोचक बाते।
BOFORS SCAM में आरोप
आरोप था कि राजीव गांधी परिवार के नजदीकी बताये जाने वाले इतालवी व्यापारी ओत्तावियो क्वात्रोक्की ने इस मामले में बिचौलिये की भूमिका अदा की, जिसके बदले में उसे दलाली की रकम का बड़ा हिस्सा मिला। कुल चार सौ BOFORS तोपों की खरीद का सौदा 1.3 अरब डालर का था। आरोप है कि स्वीडन की हथियार कंपनी BOFORS ने भारत के साथ सौदे के लिए 1.42 करोड़ डालर की रिश्वत बांटी थी।BOFORS SCAM का इतिहास
भारत सरकार और भारत को तोप बेचने की इच्छुक कंपनियों के बीच इस सौदे के बारे में 1984 में बातचीत हुई. नेगोशिएटिंग कमेटी की पहली बैठक 7.6.1984 को हुई. इसके बाद विभिन्न अवसरों पर यह कमेटी 17 बार मिली. सेना की पहली प्राथमिकता उस समय सोफमा तोप थी. पर 17.2.1986 को सेना मुख्यालय ने पहली बार अपनी रुचि BOFORS तोप में दिखाई तथा इसे सोफमा पर प्राथमिकता दी. इसके बाद तो BOFORS तोप में अनावश्यक रुचि दिखाई जाने लगी. अचानक नेगोशिएशन की प्रक्रिया तेज़ हो गई. 17.2.1986 को सेना मुख्यालय ने अपनी रिपोर्ट में BOFORS तोप को बाकी सब पर पहला स्थान दिया. इस कमेटी ने रहस्यमय जल्दबाजी की. इसने एक ही दिन 12.3.1986 को मीटिंग कर लैटर ऑफ इंटैंट (आशय पत्र) BOFORS कंपनी के पक्ष में जारी करने की स़िफारिश करने का फैसला ले लिया. इसी दिन, यानी 12.3.1986 को संयुक्त सचिव (ओ) ने एक नोट बनाया, ताकि रक्षा राज्यमंत्री अर्जुन सिंह, रक्षा राज्यमंत्री सुखराम, वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह तथा प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भेजा जा सके. यह नोट उसी दिन संबंधित अफसरों और मंत्रियों को भेजा गया और उन्होंने उसी दिन उस पर सहमति भी दे दी. इस नोट पर किसने कब हस्ताक्षर किए, वह इस तालिका से स्पष्ट हो जाएगा:1.सेक्रेटरी डिफेंस (श्री एस के भटनागर) 12.3.1986,
2. सेक्रेटरी, डिफेंस प्रोडक्शन और सप्लाई (श्री पी सी जैन) 13.3.1986,
3. रक्षा राज्यमंत्री (श्री सुखराम) 13.3.1986,
4. रक्षा राज्यमंत्री (अर्जुन सिंह) 13.3.1986,
5. फाइनेंशियल एडवाइजर (श्री सी एल चौधरी) 13.3.1986,
6. सेक्रेटरी एक्सपेंडिचर (श्री गनपथी) 13.3.1986,
7. फाइनेंस सेक्रेटरी (श्री वी वेंकटरमन) 13.3.1986,
8. वित्त मंत्री (श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह) 13.3.1986,
9. प्रधानमंत्री, जिन्होंने रक्षा मंत्री के नाते हस्ताक्षर किए (श्री राजीव गांधी) 14.3.1986.
यह तालिका बताती है कि संयुक्त सचिव (ओ) ने 12.3.1986 को नोट तैयार किया तथा इसके बाद बहुत ही ज़्यादा रुचि लेकर जल्दबाजी दिखाई गई. यह फाइल छह विभिन्न विभागों के अफसरों के पास भेजी गई. केवल 48 घंटों के भीतर 11 अफसरों एवं मंत्रियों के संक्षिप्त हस्ताक्षर कराए गए.
क्वात्रोची इस एग्रीमेंट को करने वाले मुख्य व्यक्ति के रूप में सामने आए. ए बी BOFORS ने उन्हें तारीख 8.9.1986 को 73,43,941 अमरीकी डॉलर दिए, जो उनके उस अमरीकी अकाउंट में जमा किए गए, जो केवल इसी काम के लिए खोला गया था.
स्विस अधिकारियों ने लेटर रोगेटरी के एक हिस्से पर कार्रवाई की और भारत सरकार को आधिकारिक जानकारी दी, जिसके मुताबिक़, ए ई सर्विसेज के अकाउंट में जो रकम BOFORS कंपनी ने जमा कराई थी, वह फिर आगे जाकर ट्रांसफर की गई. आठ दिन के अंतराल के बाद इस रकम में से 71,23,900 अमरीकी डॉलर दो किस्तों में स्विट्जरलैंड के एक बैंक में ट्रांसफर किए गए.
तारी़ख 16.9.1986 को 7,00,000 डॉलर और तारी़ख 29.9.1986 को 1,23,900 डॉलर ट्रांसफर हुए. यह सारी रकम जेनेवा में यूनियन बैंक ऑफ स्विट्जरलैंड में खोले गए मै. कोलंबर इन्वैस्टमेंट लिमि. इंक नाम की कंपनी के खाते में जमा हुई. इस अकाउंट को ऑपरेट और कंट्रोल करने का अधिकार ओट्टावियो क्वात्रोची और उसकी पत्नी को था.
इस रकम को ओट्टावियो क्वात्रोची के निर्देश पर मै. वेटेल्सेन ओवरसीज, एस ए ऑफ पनामा के अकाउंट में तारी़ख थी 25.7.1998 को इसी बैंक में यह रकम ट्रांसफर हुई. यह कंपनी पनामा में 6.8.1987 को बनाई गई और 7.8.1988 को भंग कर दी गई.
क्योंकि जब स्विस अधिकारी लेटर रोगेटरी पर काम कर रहे थे, तभी तारी़ख 21.5.1990 को 2,00,000 अमरीकी डॉलर फिर से वेटेल्सेन ओवरसीज, एस ए अकाउंट से (जो यू बी एस जेनेवा में है) निकाल कर इंटर इन्वेस्टमेंट डेवलपमेंट कंपनी के अकाउंट में एन्सबाशेर लिमि. के पक्ष में सेंट पीटर पोर्ट गुएरन्से में ट्रांसफर किए गए. इसके बाद किन अकाउंटों में यह पैसा किन देशों में गया, इसकी जांच अभी जारी है, क्योंकि जांचकर्ताओं का अनुमान है कि यह कई देशों में ट्रांसफर किया गया होगा.
ध्यान देने की बात है कि BOFORS कंपनी ने कमीशन के नाम पर सेक 50,463,966,00 ए ई सर्विसेज को 3.9.1986 को दिए थे. इस सारी रकम को ए ई सर्विसेज ने ओट्टावियो क्वात्रोची की कोलबर इन्वैस्टमेंट लिमि. इंक के अकाउंट में, जो जेनेवा स्थित यू बी एस बैंक में था, 16.9.1986 तथा 29.9.1986 को ट्रांसफर कर दिया. ए बी BOFORS और भारत सरकार के बीच हुए क़रार की शर्त के अनुसार भारत सरकार ने सौदे की 20 प्रतिशत अग्रिम राशि सेक 1,682,132,196.80 तारीख 2.5.1986 को BOFORS कंपनी को दे दी. ए ई सर्विसेज ने कमीशन के तौर पर जो रकम सेक 50,463,966.00 BOFORS कंपनी से प्राप्त की, वह उस रकम का 3 प्रतिशत बनती है, जो भारत सरकार ने BOFORS कंपनी को अग्रिम राशि के नाते अदा की थी. यह रकम उस अनुबंध की शर्त के अनुसार थी, जो BOFORS और ए ई सर्विसेज के बीच 15 नवंबर 1985 को हुआ था.
संयुक्त संसदीय समिति की जांच शुरू होने से पहले BOFORS कंपनी का प्रतिनिधि भारतीय अधिकारियों से आकर मिला तथा उसने स्वीकार किया था कि कुल मिलाकर स्वीडिश मुद्रा में से 319.40 मिलियन उन कंपनी को दिया गया, जो भारत से बाहर रजिस्टर्ड हैं. इस कंपनी में स्वेंस्का इंक पनामा तथा ए ई सर्विसेज लिमिटेड यूके शामिल हैं. इन्हें यह रकम वाइंडिंग-अप चार्ज के रूप में दी गई है.
स्विस अधिकारियों की जांच में यह बात भी सामने आई कि BOFORS कंपनी ने स्टॉकहोम स्थित स्कान्डिनाविस्का एन्सकिल्डा बांकेन से 3 सितंबर 1986 को 50,463,966,00 सेक (अमरीकी डॉलर 7,343,941,98 के बराबर) निकाले तथा उन्हें अकाउंट नंबर 18051-53, जो कि ए ई सर्विसेज लिमिटेड के नाम था, में जमा कराया. यह अकाउंट ज्यूरिख के नोर्डिफिनांज बैंक का है. इस अकाउंट को, जो कि ए ई सर्विसेज लिमि. केयर ऑफ मायो एसोसिएट्स एस ए जेनेवा का है, केवल पंद्रह दिन पहले 20 अगस्त, 1986 को माइल्स ट्वीडेज स्टाट ने डायरेक्टर की हैसियत से खोला था.
यह तालिका बताती है कि संयुक्त सचिव (ओ) ने 12.3.1986 को नोट तैयार किया तथा इसके बाद बहुत ही ज़्यादा रुचि लेकर जल्दबाजी दिखाई गई. यह फाइल छह विभिन्न विभागों के अफसरों के पास भेजी गई. केवल 48 घंटों के भीतर 11 अफसरों एवं मंत्रियों के संक्षिप्त हस्ताक्षर कराए गए.
BOFORS SCAM में पैसो कि लेन – देन
फरवरी 1990 में भारत सरकार ने इस कांड की संपूर्ण जांच का अनुरोध स्विस अधिकारियों से किया. इसके लिए भारत सरकार ने स्विस अधिकारियों को लेटर रोगेटरी भेजा, जिसे दिल्ली की विशेष अदालत ने जारी किया. इसमें यह मांग की गई कि स्विस अधिकारी यह बताएं कि ए बी BOFORS ने ए ई सर्विसेज को कब और कितना पैसा दिया है.क्वात्रोची इस एग्रीमेंट को करने वाले मुख्य व्यक्ति के रूप में सामने आए. ए बी BOFORS ने उन्हें तारीख 8.9.1986 को 73,43,941 अमरीकी डॉलर दिए, जो उनके उस अमरीकी अकाउंट में जमा किए गए, जो केवल इसी काम के लिए खोला गया था.
स्विस अधिकारियों ने लेटर रोगेटरी के एक हिस्से पर कार्रवाई की और भारत सरकार को आधिकारिक जानकारी दी, जिसके मुताबिक़, ए ई सर्विसेज के अकाउंट में जो रकम BOFORS कंपनी ने जमा कराई थी, वह फिर आगे जाकर ट्रांसफर की गई. आठ दिन के अंतराल के बाद इस रकम में से 71,23,900 अमरीकी डॉलर दो किस्तों में स्विट्जरलैंड के एक बैंक में ट्रांसफर किए गए.
तारी़ख 16.9.1986 को 7,00,000 डॉलर और तारी़ख 29.9.1986 को 1,23,900 डॉलर ट्रांसफर हुए. यह सारी रकम जेनेवा में यूनियन बैंक ऑफ स्विट्जरलैंड में खोले गए मै. कोलंबर इन्वैस्टमेंट लिमि. इंक नाम की कंपनी के खाते में जमा हुई. इस अकाउंट को ऑपरेट और कंट्रोल करने का अधिकार ओट्टावियो क्वात्रोची और उसकी पत्नी को था.
इस रकम को ओट्टावियो क्वात्रोची के निर्देश पर मै. वेटेल्सेन ओवरसीज, एस ए ऑफ पनामा के अकाउंट में तारी़ख थी 25.7.1998 को इसी बैंक में यह रकम ट्रांसफर हुई. यह कंपनी पनामा में 6.8.1987 को बनाई गई और 7.8.1988 को भंग कर दी गई.
क्योंकि जब स्विस अधिकारी लेटर रोगेटरी पर काम कर रहे थे, तभी तारी़ख 21.5.1990 को 2,00,000 अमरीकी डॉलर फिर से वेटेल्सेन ओवरसीज, एस ए अकाउंट से (जो यू बी एस जेनेवा में है) निकाल कर इंटर इन्वेस्टमेंट डेवलपमेंट कंपनी के अकाउंट में एन्सबाशेर लिमि. के पक्ष में सेंट पीटर पोर्ट गुएरन्से में ट्रांसफर किए गए. इसके बाद किन अकाउंटों में यह पैसा किन देशों में गया, इसकी जांच अभी जारी है, क्योंकि जांचकर्ताओं का अनुमान है कि यह कई देशों में ट्रांसफर किया गया होगा.
ध्यान देने की बात है कि BOFORS कंपनी ने कमीशन के नाम पर सेक 50,463,966,00 ए ई सर्विसेज को 3.9.1986 को दिए थे. इस सारी रकम को ए ई सर्विसेज ने ओट्टावियो क्वात्रोची की कोलबर इन्वैस्टमेंट लिमि. इंक के अकाउंट में, जो जेनेवा स्थित यू बी एस बैंक में था, 16.9.1986 तथा 29.9.1986 को ट्रांसफर कर दिया. ए बी BOFORS और भारत सरकार के बीच हुए क़रार की शर्त के अनुसार भारत सरकार ने सौदे की 20 प्रतिशत अग्रिम राशि सेक 1,682,132,196.80 तारीख 2.5.1986 को BOFORS कंपनी को दे दी. ए ई सर्विसेज ने कमीशन के तौर पर जो रकम सेक 50,463,966.00 BOFORS कंपनी से प्राप्त की, वह उस रकम का 3 प्रतिशत बनती है, जो भारत सरकार ने BOFORS कंपनी को अग्रिम राशि के नाते अदा की थी. यह रकम उस अनुबंध की शर्त के अनुसार थी, जो BOFORS और ए ई सर्विसेज के बीच 15 नवंबर 1985 को हुआ था.
संयुक्त संसदीय समिति की जांच शुरू होने से पहले BOFORS कंपनी का प्रतिनिधि भारतीय अधिकारियों से आकर मिला तथा उसने स्वीकार किया था कि कुल मिलाकर स्वीडिश मुद्रा में से 319.40 मिलियन उन कंपनी को दिया गया, जो भारत से बाहर रजिस्टर्ड हैं. इस कंपनी में स्वेंस्का इंक पनामा तथा ए ई सर्विसेज लिमिटेड यूके शामिल हैं. इन्हें यह रकम वाइंडिंग-अप चार्ज के रूप में दी गई है.
स्विस अधिकारियों की जांच में यह बात भी सामने आई कि BOFORS कंपनी ने स्टॉकहोम स्थित स्कान्डिनाविस्का एन्सकिल्डा बांकेन से 3 सितंबर 1986 को 50,463,966,00 सेक (अमरीकी डॉलर 7,343,941,98 के बराबर) निकाले तथा उन्हें अकाउंट नंबर 18051-53, जो कि ए ई सर्विसेज लिमिटेड के नाम था, में जमा कराया. यह अकाउंट ज्यूरिख के नोर्डिफिनांज बैंक का है. इस अकाउंट को, जो कि ए ई सर्विसेज लिमि. केयर ऑफ मायो एसोसिएट्स एस ए जेनेवा का है, केवल पंद्रह दिन पहले 20 अगस्त, 1986 को माइल्स ट्वीडेज स्टाट ने डायरेक्टर की हैसियत से खोला था.
ए ई सर्विसेज के इस अकाउंट से दो किस्तों में 7,123,900 अमरीकी डॉलर निकाले गए. इसमें 70,00,000,00 अमरीकी डॉलर 16 सितंबर 1986 को तथा 1,23,900,00 अमरीकी डॉलर 29 सितंबर 1986 को निकाले गए. निकाली गई इस रकम को कोलबर इन्वैस्टमेंट लिमि. इंक पनामा के जेनेवा स्थित यूनियन बैंक के अकाउंट नंबर 254,561,60 डब्ल्यू में ट्रांसफर किया गया. कोलबर इन्वैस्टमेंट लिमि. इंक के इस अकाउंट से पुन: 7,943,000,00 डॉलर 25.7.1988 को अकाउंट नंबर 488320,60 ऑफ एम/एस वेटेल्सेन ओवरसीज एस ए में ट्रांसफर किए गए. यह अकाउंट भी जेनेवा के यूनियन बैंक में ही है. एम/एस वेटेल्सेन ओवरसीज के इसी अकाउंट से पुन: 21 मई 1990 को 9,200,000,00 डॉलर ट्रांसफर किए गए. इस बार यह रकम अकाउंट नंबर 123893 में ट्रांसफर की गई. यह अकाउंट इंटरनेशनल डेवलपमेंट कं. का है, जो एनवाशेर (सी आई) लिमि. सेंट पीटर पोर्ट, गुएरन्से (चैनल आइसलैंड) में स्थित है.
ये एकाउंट एम/एस कोलबर इन्वैस्टमेंट लिमि. इंक तथा वेटेल्सेन ओवरसीज को ओट्टावियो क्वात्रोची तथा उसकी पत्नी मारिया क्वात्रोची कंट्रोल करती थी. जब चैनल आइसलैंड में जांच हुई, तब पता चला कि यह सारी रकम दस दिनों के भीतर (जब वह गुएरन्से में आई, उसके बाद) दोबारा स्विट्जरलैंड तथा आस्ट्रिया ले जाई गई.
2007 में रेड कार्नर नोटिस के बल पर ही क्वात्रोक्की को अर्जेन्टिना पुलिस ने गिरफ्तार किया। वह बीस-पच्चीस दिन तक पुलिस की हिरासत में रहा। CBI ने काफी समय बाद इसका खुलासा किया। CBI ने उसके प्रत्यर्पण के लिए वहां की कोर्ट में काफी देर से अर्जी दाखिल की। तकनीकी आधार पर उस अर्जी को खारिज कर दिया गया, लेकिन CBI ने उसके खिलाफ वहां की ऊंची अदालत में जाना मुनासिब नहीं समझा। नतीजतन क्वात्रोक्की जमानत पर रिहा होकर अपने देश इटली चला गया। पिछले बारह साल से वह इंटरपोल के रेड कार्नर नोटिस की सूची में है। CBI अगर उसका नाम इस सूची से हटाने की अपील करने जा रही है तो इसका सीधा सा मतलब यही है कि कानून मंत्रालय, अटार्नी जनरल और CBI क्वात्रोक्की को BOFORS मामले में दलाली खाने के मामले में क्लीन चिट देने जा रही है।
इस मामले को CBI ने जिस तरह से भूमिका निभायी है, उसकी विशेषज्ञों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, राजनीतिक दलों और लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर आलोचना की गई है। ध्यान योग्य कुछ बिंदु ये हैं-
• (१) प्रथम सूचना रिपोर्ट करने में अत्यधिक देरी
• (२) अनुरोध पत्र (letters rogatories) भेजने में देरी
• (३) 2004 में दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील न करना
• (४) क्वात्रोची के लन्दन के बैंक खाते को पुनः चालू (De-freez) कर देना
• (५) अर्जेंटीना से क्वात्रोची के प्रत्यर्पण के लिए एक बहुत ही कमजोर केस बनाना
• (६) इसके बाद भी, निचली अदालत के फैसले के खिलाफ कोई अपील न करना
• (७) इंटरपोल रेड कॉर्नर नोटिस को वापस ले लेना
• (८) और अन्ततः, क्वात्रोची के खिलाफ मुकद्दमे को वापस ले लेना।
ये एकाउंट एम/एस कोलबर इन्वैस्टमेंट लिमि. इंक तथा वेटेल्सेन ओवरसीज को ओट्टावियो क्वात्रोची तथा उसकी पत्नी मारिया क्वात्रोची कंट्रोल करती थी. जब चैनल आइसलैंड में जांच हुई, तब पता चला कि यह सारी रकम दस दिनों के भीतर (जब वह गुएरन्से में आई, उसके बाद) दोबारा स्विट्जरलैंड तथा आस्ट्रिया ले जाई गई.
BOFORS SCAM में CBI की भूमिका की आलोचना
CBI को इस मामले की जांच सौंपी गयी लेकिन सरकारें बदलने पर CBI की जांच की दिशा भी लगातार बदलती रही। एक दौर था, जब जोगिन्दर सिंह CBI चीफ थे तो एजेंसी स्वीडन से महत्वपूर्ण दस्तावेज लाने में सफल हो गयी थी। जोगिन्दर सिंह ने तब दावा किया था कि केस सुलझा लिया गया है। बस, देरी है तो क्वात्रोक्की को प्रत्यर्पण कर भारत लाकर अदालत में पेश करने की। उनके हटने के बाद CBI की चाल ही बदल गयी। इस बीच कई ऐसे दांवपेंच खेले गये कि क्वात्रोक्की को राहत मिलती गयी। दिल्ली की एक अदालत ने हिंदुजा बंधुओं को रिहा किया तो CBI ने लंदन की अदालत से कह दिया कि क्वात्रोक्की के खिलाफ कोई सबूत ही नहीं हैं। अदालत ने क्वात्रोक्की के सील खातों को खोलने के आदेश जारी कर दिये। नतीजतन क्वात्रोक्की ने रातों-रात उन खातों से पैसा निकाल लिया।
2007 में रेड कार्नर नोटिस के बल पर ही क्वात्रोक्की को अर्जेन्टिना पुलिस ने गिरफ्तार किया। वह बीस-पच्चीस दिन तक पुलिस की हिरासत में रहा। CBI ने काफी समय बाद इसका खुलासा किया। CBI ने उसके प्रत्यर्पण के लिए वहां की कोर्ट में काफी देर से अर्जी दाखिल की। तकनीकी आधार पर उस अर्जी को खारिज कर दिया गया, लेकिन CBI ने उसके खिलाफ वहां की ऊंची अदालत में जाना मुनासिब नहीं समझा। नतीजतन क्वात्रोक्की जमानत पर रिहा होकर अपने देश इटली चला गया। पिछले बारह साल से वह इंटरपोल के रेड कार्नर नोटिस की सूची में है। CBI अगर उसका नाम इस सूची से हटाने की अपील करने जा रही है तो इसका सीधा सा मतलब यही है कि कानून मंत्रालय, अटार्नी जनरल और CBI क्वात्रोक्की को BOFORS मामले में दलाली खाने के मामले में क्लीन चिट देने जा रही है।
इस मामले को CBI ने जिस तरह से भूमिका निभायी है, उसकी विशेषज्ञों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, राजनीतिक दलों और लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर आलोचना की गई है। ध्यान योग्य कुछ बिंदु ये हैं-
• (१) प्रथम सूचना रिपोर्ट करने में अत्यधिक देरी
• (२) अनुरोध पत्र (letters rogatories) भेजने में देरी
• (३) 2004 में दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील न करना
• (४) क्वात्रोची के लन्दन के बैंक खाते को पुनः चालू (De-freez) कर देना
• (५) अर्जेंटीना से क्वात्रोची के प्रत्यर्पण के लिए एक बहुत ही कमजोर केस बनाना
• (६) इसके बाद भी, निचली अदालत के फैसले के खिलाफ कोई अपील न करना
• (७) इंटरपोल रेड कॉर्नर नोटिस को वापस ले लेना
• (८) और अन्ततः, क्वात्रोची के खिलाफ मुकद्दमे को वापस ले लेना।
BOFORS SCAM का प्रमुख घनाक्रम
24 मार्च, 1986: भारत सरकार और स्वीडन की हथियार निर्माता कम्पनी एबी BOFORS के बीच 1,437 करोड़ रुपये का सौदा हुआ। यह सौदा भारतीय थल सेना को 155 एमएम की 400 होवित्जर तोप की सप्लाई के लिए हुआ था।
16 अप्रैल, 1987: यह दिन भारतीय राजनीति, और मुख्यतः कांग्रेस के लिए भूचाल लाने वाला सिद्ध हुआ। स्वीदेन के रेडियो ने दावा किया कि कम्पनी ने सौदे के लिए भारत के वरिष्ठ राजनीतिज्ञों और रक्षा विभाग के अधिकारी को घूस दिए हैं। 60 करोड़ रुपये घूस देने का दावा किया गया। राजीव गांधी उस समय भारत के प्रधानमन्त्री थे।
20 अप्रैल, 1987: लोकसभा में राजीव गांधी ने बताया था कि न ही कोई रिश्वत दी गई और न ही बीच में किसी बिचौलिये की भूमिका थी।
6 अगस्त, 1987: रिश्वतखोरी के आरोपों की जांच के लिए एक संयुक्त संसदीय कमिटी (जेपीसी) का गठन हुआ। इसका नेतृत्व पूर्व केंद्रीय मंत्री बी. शंकरानन्द ने किया।
फरवरी 1988: मामले की जांच के लिए भारत का एक जांच दल स्वीडन पहुंचा।
18 जुलाई, 1989: जेपीसी ने संसद को रिपोर्ट सौंपी।
नवम्बर, 1989: भारत में आम चुनाव हुए और कांग्रेस की बड़ी हार हुई और राजीव गांधी प्रधानमंत्री नहीं रहे।
26 दिसम्बर, 1989: नए प्रधानमन्त्री वी.पी.सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने BOFORS पर पाबन्दी लगा दी।
22 जनवरी, 1990: CBI ने आपराधिक षडयन्त्र, धोखाधड़ी और जालसाजी का मामला दर्ज किया। मामला एबी BOFORS के तत्कालीन अध्यक्ष मार्टिन आर्डबो, कथित बिचौलिये विन चड्ढा और हिन्दुजा बंधुओं के खिलाफ दर्ज हुआ।
फरवरी 1990: स्विस सरकार को न्यायिक सहायता के लिए पहला आग्रह पत्र भेजा गया।
फरवरी 1992: BOFORS घपले पर पत्रकार बो एंडर्सन की रिपोर्ट से भूचाल आ गया।
दिसम्बर 1992: मामले में शिकायत को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया और दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय को पलट दिया।
जुलाई 1993: स्विटजरलैंड के सुप्रीम कोर्ट ने ओत्तावियो क्वात्रोकी और मामले के अन्य आरोपियों की अपील खारिज कर दी। क्वात्रोकी इटली का एक व्यापारी था जिस पर BOFORS घाटाले में दलाली के जरिए घूस खाने का आरोप था। इसी महीने वह भारत छोड़कर फरार हो गया और फिर कभी नहीं आया।
फरवरी 1997: क्वात्रोकी के खिलाफ गैर जमानती वॉरंट (एनबीडब्ल्यू) और रेड कॉर्नर नोटिस जारी की गई।
मार्च-अगस्त 1998: क्वात्रोकी ने एक याचिका दाखिल की जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया क्योंकि उसने भारत के कोर्ट में हाजिर होने से इनकार कर दिया था।
दिसम्बर 1998: स्विस सरकार को दूसरा रोगैटरी लेटर भेजा गया और गर्नसी एवं ऑस्ट्रिया से स्विटजरलैंड पैसा ट्रांसफर किए जाने की जांच का आग्रह किया गया। रोगैटरी लेटर एक तरह का औपचारिक आग्रह होता है जिसमें एक देश दूसरे देश से न्यायिक सहायता की मांग करता है।
22 अक्टूबर, 1999: एबी BOFORS के एजेंट विन चड्ढा, क्वात्रोकी, तत्कालीन रक्षा सचिव एस.के.भटनागर और BOFORS कंपनी के प्रेजिडेंट मार्टिन कार्ल आर्डबो के खिलाफ पहला आरोपपत्र दाखिल किया गया।
मार्च-सितंबर 2000: सुनवाई के लिए चड्ढा भारत आया। उसने चिकित्सा उपचार के लिए दुबाई जाने की अनुमति मांगी थी लेकिन उसकी मांग खारिज कर दी गई थी।
सितंबर-अक्टूबर 2000: हिंदुजा बंधुओं ने लंदन में एक बयान जारी करके कहा कि उनके द्वारा जो फंड आवंटित किया गया, उसका BOFORS डील से कोई लेना-देना नहीं था। हिंदुजा बंधुओं के खिलाफ एक पूरक आरोपपत्र दाखिल किया गया और क्वात्रोकी के खिलाफ एक आरोपपत्र दाखिल की गई। उसने सुप्रीम कोर्ट से अपनी गिरफ्तारी के फैसले को पलटने का आग्रह किया था लेकिन जब उससे जांच के लिए CBI के समक्ष हाजिर होने को कहा तो उसने मानने से इनकार कर दिया।
दिसम्बर 2000: क्वात्रोकी को मलयेशिया में गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन बाद में जमानत दे दी गई। जमानत इस शर्त पर दी गई थी कि वह शहर नहीं छोड़ेगा।
अगस्त 2001: भटनागर की कैंसर से मौत हो गई।
दिसम्बर 2002: भारत ने क्वात्रोकी के प्रत्यर्पण की मांग की लेकिन मलयेशिया के हाई कोर्ट ने आग्रह को खारिज कर दिया।
जुलाई 2003: भारत ने यूके को अनुरोध पत्र (लेटर ऑफ रोगैटरी) भेजा और क्वात्रोकी के बैंक खाते को जब्त करने की मांग की।
फरवरी-मार्च 2004: कोर्ट ने स्वर्गीय राजीव गांधी और भटनागर को मामले से बरी कर दिया। मलयेशिया के सुप्रीम कोर्ट ने भी क्वात्रोकी के प्रत्यर्पण की भारत की मांग को खारिज कर दिया।
मई-अक्टूबर 2005: दिल्ली हाई कोर्ट ने हिंदुजा बंधु और एबी BOFORS के खिलाफ आरोपों को खारिज कर दिया। 90 दिनों की अनिवार्य अवधि में CBI ने कोई अपील दाखिल नहीं की। इसकी वजह से सुप्रीम कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के एक वकील अजय अग्रवाल को हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ एक अपील दाखिल करने की अनुमति दी।
जनवरी 2006: सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और CBI को निर्देश दिया कि क्वात्रोकी के खातों के जब्त करने पर यथापूर्व स्थिति बनाए रखा जाए लेकिन उसी दिन पैसा निकाल लिया गया।
फरवरी-जून 2007: इंटरपोल ने अर्जेंटिना में क्वात्रोती को गिरफ्तार कर लिया लेकिन तीन महीने बाद अर्जेंटिना के कोर्ट ने प्रत्यर्पण के भारत के आग्रह को खारिज कर दिया।
अप्रैल-नवम्बर 2009: CBI ने क्वात्रोकी के खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस को वापस ले लिया और चूंकि प्रत्यर्पण का बार-बार का प्रयास विफल हो गया था इसलिए मामले को बंद करने की सुप्रीम कोर्ट से अनुमति मांगी। बाद में अजय अग्रवाल ने लंदन में क्वात्रोकी के खाते संबंधित दस्तावेज मांगे लेकिन CBI ने याचिका का जवाब नहीं दिया।
दिसम्बर 2010: कोर्ट ने क्वात्रोकी को बरी करने की CBI की याचिका पर फैसले को पलट दिया। इनकम टैक्स ट्राइब्यूनल ने क्वात्रोकी और चड्ढा के बेटे से उन पर बकाया टैक्स वसूलने का इनकम टैक्स डिपार्टमेंट को निर्देश दिया।
फरवरी-मार्च 2011: मुख्य सूचना आयुक्त ने CBI पर सूचनाओं को वापस लेने का आरोप लगाया। एक महीने बाद दिल्ली स्थित CBI के एक स्पेशल कोर्ट ने क्वात्रोकी को बरी कर दिया और टिप्पणी की कि टैक्सपेयर्स की गाढ़ी कमाई को देश उसके प्रत्यर्पण पर खर्च नहीं कर सकता हैं क्योंकि पहले ही करीब 250 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं।
अप्रैल 2012: स्वीडन पुलिस ने कहा कि राजीव गांधी और अमिताभ बच्चन द्वारा रिश्वतखोरी का कोई साक्ष्य नहीं है। आपको बता दें कि अमिताभ बच्चन से राजीव गांधी की गहरी दोस्ती थी। एक समाचार पत्र की रिपोर्ट में अमिताभ बच्चन पर भी रिश्वतखोरी में शामिल होने का आरोप लगाया गया था। इसके बाद उनके खिलाफ भी मामला दर्ज कर लिया गया था लेकिन बाद में उनको निर्दोष करार दे दिया गया था।
13, जुलाई 2013: सन् 1993 को भारत से फरार हुए क्वात्रोकी की मृत्यु हो गई। तब तक अन्य आरोपी जैसे भटनागर, चड्ढा और आर्डबो की भी मौत हो चुकी थी।
1 दिसम्बर, 2016: 12 अगस्त, 2010 के बाद करीब छह साल के अन्तराल के बाद अग्रवाल की याचिका पर सुनवाई हुई।
14 जुलाई, 2017: CBI ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार अगर आदेश दें तो वह फिर से BOFORS मामले की जांच शुरू कर सकती है।
2 फरवरी, 2018: CBI ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दाखिल करके दिल्ली हाई कोर्ट के 2005 के फैसले को चुनौती दी।
1 नवंबर, 2018: CBI द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में BOFORS घोटाले की जांच फिर से शुरू किए जाने की मांग को शीर्ष अदालत ने खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि CBI 13 साल की देरी से अदालत क्यों आई?
16 अप्रैल, 1987: यह दिन भारतीय राजनीति, और मुख्यतः कांग्रेस के लिए भूचाल लाने वाला सिद्ध हुआ। स्वीदेन के रेडियो ने दावा किया कि कम्पनी ने सौदे के लिए भारत के वरिष्ठ राजनीतिज्ञों और रक्षा विभाग के अधिकारी को घूस दिए हैं। 60 करोड़ रुपये घूस देने का दावा किया गया। राजीव गांधी उस समय भारत के प्रधानमन्त्री थे।
20 अप्रैल, 1987: लोकसभा में राजीव गांधी ने बताया था कि न ही कोई रिश्वत दी गई और न ही बीच में किसी बिचौलिये की भूमिका थी।
6 अगस्त, 1987: रिश्वतखोरी के आरोपों की जांच के लिए एक संयुक्त संसदीय कमिटी (जेपीसी) का गठन हुआ। इसका नेतृत्व पूर्व केंद्रीय मंत्री बी. शंकरानन्द ने किया।
फरवरी 1988: मामले की जांच के लिए भारत का एक जांच दल स्वीडन पहुंचा।
18 जुलाई, 1989: जेपीसी ने संसद को रिपोर्ट सौंपी।
नवम्बर, 1989: भारत में आम चुनाव हुए और कांग्रेस की बड़ी हार हुई और राजीव गांधी प्रधानमंत्री नहीं रहे।
26 दिसम्बर, 1989: नए प्रधानमन्त्री वी.पी.सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने BOFORS पर पाबन्दी लगा दी।
22 जनवरी, 1990: CBI ने आपराधिक षडयन्त्र, धोखाधड़ी और जालसाजी का मामला दर्ज किया। मामला एबी BOFORS के तत्कालीन अध्यक्ष मार्टिन आर्डबो, कथित बिचौलिये विन चड्ढा और हिन्दुजा बंधुओं के खिलाफ दर्ज हुआ।
फरवरी 1990: स्विस सरकार को न्यायिक सहायता के लिए पहला आग्रह पत्र भेजा गया।
फरवरी 1992: BOFORS घपले पर पत्रकार बो एंडर्सन की रिपोर्ट से भूचाल आ गया।
दिसम्बर 1992: मामले में शिकायत को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया और दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय को पलट दिया।
जुलाई 1993: स्विटजरलैंड के सुप्रीम कोर्ट ने ओत्तावियो क्वात्रोकी और मामले के अन्य आरोपियों की अपील खारिज कर दी। क्वात्रोकी इटली का एक व्यापारी था जिस पर BOFORS घाटाले में दलाली के जरिए घूस खाने का आरोप था। इसी महीने वह भारत छोड़कर फरार हो गया और फिर कभी नहीं आया।
फरवरी 1997: क्वात्रोकी के खिलाफ गैर जमानती वॉरंट (एनबीडब्ल्यू) और रेड कॉर्नर नोटिस जारी की गई।
मार्च-अगस्त 1998: क्वात्रोकी ने एक याचिका दाखिल की जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया क्योंकि उसने भारत के कोर्ट में हाजिर होने से इनकार कर दिया था।
दिसम्बर 1998: स्विस सरकार को दूसरा रोगैटरी लेटर भेजा गया और गर्नसी एवं ऑस्ट्रिया से स्विटजरलैंड पैसा ट्रांसफर किए जाने की जांच का आग्रह किया गया। रोगैटरी लेटर एक तरह का औपचारिक आग्रह होता है जिसमें एक देश दूसरे देश से न्यायिक सहायता की मांग करता है।
22 अक्टूबर, 1999: एबी BOFORS के एजेंट विन चड्ढा, क्वात्रोकी, तत्कालीन रक्षा सचिव एस.के.भटनागर और BOFORS कंपनी के प्रेजिडेंट मार्टिन कार्ल आर्डबो के खिलाफ पहला आरोपपत्र दाखिल किया गया।
मार्च-सितंबर 2000: सुनवाई के लिए चड्ढा भारत आया। उसने चिकित्सा उपचार के लिए दुबाई जाने की अनुमति मांगी थी लेकिन उसकी मांग खारिज कर दी गई थी।
सितंबर-अक्टूबर 2000: हिंदुजा बंधुओं ने लंदन में एक बयान जारी करके कहा कि उनके द्वारा जो फंड आवंटित किया गया, उसका BOFORS डील से कोई लेना-देना नहीं था। हिंदुजा बंधुओं के खिलाफ एक पूरक आरोपपत्र दाखिल किया गया और क्वात्रोकी के खिलाफ एक आरोपपत्र दाखिल की गई। उसने सुप्रीम कोर्ट से अपनी गिरफ्तारी के फैसले को पलटने का आग्रह किया था लेकिन जब उससे जांच के लिए CBI के समक्ष हाजिर होने को कहा तो उसने मानने से इनकार कर दिया।
दिसम्बर 2000: क्वात्रोकी को मलयेशिया में गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन बाद में जमानत दे दी गई। जमानत इस शर्त पर दी गई थी कि वह शहर नहीं छोड़ेगा।
अगस्त 2001: भटनागर की कैंसर से मौत हो गई।
दिसम्बर 2002: भारत ने क्वात्रोकी के प्रत्यर्पण की मांग की लेकिन मलयेशिया के हाई कोर्ट ने आग्रह को खारिज कर दिया।
जुलाई 2003: भारत ने यूके को अनुरोध पत्र (लेटर ऑफ रोगैटरी) भेजा और क्वात्रोकी के बैंक खाते को जब्त करने की मांग की।
फरवरी-मार्च 2004: कोर्ट ने स्वर्गीय राजीव गांधी और भटनागर को मामले से बरी कर दिया। मलयेशिया के सुप्रीम कोर्ट ने भी क्वात्रोकी के प्रत्यर्पण की भारत की मांग को खारिज कर दिया।
मई-अक्टूबर 2005: दिल्ली हाई कोर्ट ने हिंदुजा बंधु और एबी BOFORS के खिलाफ आरोपों को खारिज कर दिया। 90 दिनों की अनिवार्य अवधि में CBI ने कोई अपील दाखिल नहीं की। इसकी वजह से सुप्रीम कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के एक वकील अजय अग्रवाल को हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ एक अपील दाखिल करने की अनुमति दी।
जनवरी 2006: सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और CBI को निर्देश दिया कि क्वात्रोकी के खातों के जब्त करने पर यथापूर्व स्थिति बनाए रखा जाए लेकिन उसी दिन पैसा निकाल लिया गया।
फरवरी-जून 2007: इंटरपोल ने अर्जेंटिना में क्वात्रोती को गिरफ्तार कर लिया लेकिन तीन महीने बाद अर्जेंटिना के कोर्ट ने प्रत्यर्पण के भारत के आग्रह को खारिज कर दिया।
अप्रैल-नवम्बर 2009: CBI ने क्वात्रोकी के खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस को वापस ले लिया और चूंकि प्रत्यर्पण का बार-बार का प्रयास विफल हो गया था इसलिए मामले को बंद करने की सुप्रीम कोर्ट से अनुमति मांगी। बाद में अजय अग्रवाल ने लंदन में क्वात्रोकी के खाते संबंधित दस्तावेज मांगे लेकिन CBI ने याचिका का जवाब नहीं दिया।
दिसम्बर 2010: कोर्ट ने क्वात्रोकी को बरी करने की CBI की याचिका पर फैसले को पलट दिया। इनकम टैक्स ट्राइब्यूनल ने क्वात्रोकी और चड्ढा के बेटे से उन पर बकाया टैक्स वसूलने का इनकम टैक्स डिपार्टमेंट को निर्देश दिया।
फरवरी-मार्च 2011: मुख्य सूचना आयुक्त ने CBI पर सूचनाओं को वापस लेने का आरोप लगाया। एक महीने बाद दिल्ली स्थित CBI के एक स्पेशल कोर्ट ने क्वात्रोकी को बरी कर दिया और टिप्पणी की कि टैक्सपेयर्स की गाढ़ी कमाई को देश उसके प्रत्यर्पण पर खर्च नहीं कर सकता हैं क्योंकि पहले ही करीब 250 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं।
अप्रैल 2012: स्वीडन पुलिस ने कहा कि राजीव गांधी और अमिताभ बच्चन द्वारा रिश्वतखोरी का कोई साक्ष्य नहीं है। आपको बता दें कि अमिताभ बच्चन से राजीव गांधी की गहरी दोस्ती थी। एक समाचार पत्र की रिपोर्ट में अमिताभ बच्चन पर भी रिश्वतखोरी में शामिल होने का आरोप लगाया गया था। इसके बाद उनके खिलाफ भी मामला दर्ज कर लिया गया था लेकिन बाद में उनको निर्दोष करार दे दिया गया था।
13, जुलाई 2013: सन् 1993 को भारत से फरार हुए क्वात्रोकी की मृत्यु हो गई। तब तक अन्य आरोपी जैसे भटनागर, चड्ढा और आर्डबो की भी मौत हो चुकी थी।
1 दिसम्बर, 2016: 12 अगस्त, 2010 के बाद करीब छह साल के अन्तराल के बाद अग्रवाल की याचिका पर सुनवाई हुई।
14 जुलाई, 2017: CBI ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार अगर आदेश दें तो वह फिर से BOFORS मामले की जांच शुरू कर सकती है।
2 फरवरी, 2018: CBI ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दाखिल करके दिल्ली हाई कोर्ट के 2005 के फैसले को चुनौती दी।
1 नवंबर, 2018: CBI द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में BOFORS घोटाले की जांच फिर से शुरू किए जाने की मांग को शीर्ष अदालत ने खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि CBI 13 साल की देरी से अदालत क्यों आई?
Disclaimer :
यह वेब पेज भारत में हुए घोटालों की व्याख्या करता है। जानकारी मीडिया रिपोर्टों और इंटरनेट से एकत्र की जाती है। www.scamtalk.in या इसके मालिक सामग्री की प्रामाणिकता के लिए कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेते हैं। चूंकि कुछ मामले कानून की अदालत में हैं, हम किसी भी मामले का समर्थन नहीं करते हैं या उस पर निष्कर्ष नहीं निकालते हैं।
यदि आपको उपरोक्त जानकारी में कोई परिवर्तन करने की आवश्यकता है, तो कृपया वैध प्रमाण के साथ हमसे संपर्क करें। हालाँकि इस बुराई के खिलाफ समाज में जागरूकता पैदा करने और भ्रष्टाचार मुक्त भारत के लिए युवा पीढ़ी को तैयार करने के लिए गंभीर प्रयास किया जा रहा है।
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